Две картины

Вячеслав Прошутинский
               
Откуда  я  беру 
свои  стихи?
Они  приходят 
в  звуках  заоконных,
то  громких, 
а  то  тихих,  монотонных,
как   близкой  церкви 
отзвук  панихид.
Я  приложусь 
к  стеклу  окна  щекой.
Глаза  свои 
ладошкою  прикрою.
И  вечный 
возвышающий  покой
в  меня  вольется 
теплою  рекою.
И  вижу  я…   
поток  воспоминаний
меня  выносит 
в  тот  далекий  край,
в  котором  детства 
незабытый  рай
и  мир  открытий 
и  очарований…
Я  в  этом  мире  свой, 
а  не  чужак.
Меня,  мальчонку, 
все  вокруг  любили.
Теплом  любви 
и  счастья  зарядили.
Я  вырасти  другим 
не  мог  никак.
И  вот  сегодня  я, 
седоволосый,
прошедший  и  барханы, 
и  торосы,
хочу  найти  ответы 
на  вопросы,
которых  корни 
прячутся  в  веках. 
Я  возвращаюсь 
в  мир  далекий  детства -
пересмотреть  хочу
багаж  наследства,
взглянув  на  все, 
что  было  по  соседству,
что  есть,  что  будет,   
с  юмором  слегка.   
Наверно,  только 
с  внутренним  сарказмом,
с  усмешкой  можем  мы 
шагать  вперед.
Ведь  то,   что  нынче, 
кроме  как  маразмом
нормальный  человек 
не  назовет.
Я  не  мудрец 
под  тяжким  грузом  знаний.
Из  вороха 
своих  воспоминаний,
читатель, 
сам  мозаику  сложи.
Воспоминания 
не  генератор  лжи,
они  лишь 
накопитель  умолчаний.
Я  словно 
кинохронику  кручу.
Да,  многих  кадров  нет, 
но  я  молчу.
Взять  эту  пленку 
да  оцифровать,
чтоб  без  купюр
ее  передавать.
Хотите  знать, 
что  за  гипнотизер
из  памяти  моей 
те  кадры  стер?
Я  перед  ним 
склонил  седое  темя.
Гипнотизер… 
ему  названье  ВРЕМЯ.
Хотя  себе  он 
и  не  изменил,
спасибо, 
что  хоть  что-то  сохранил.
Из  этих  пазлов 
я  на  этот  раз
попробую  составить 
свой  рассказ.
Помпеи  к  нам  пришли 
не  в  книжных  стопках  -
во  фресках  мозаичных 
на  раскопках.
Чтоб  ни  минуты 
даром  не  терять,
мозаику  рискну 
и  я  собрать,
чтобы  тебе 
полегче  разбирать
было  все  то, 
что  годы  намотали,
Ведь  время  они 
даром  не  теряли…
…………………………
И  снова  Томск. 
Войны  четвертый  год.
Гудит 
Шпалопропиточный  завод.
Округа  вся 
пропахла  креозотом.
Он  с  кожи  не  уходит 
даже  с  потом.
А  я  всю  жизнь 
испытывал  проблемы
своей  родной 
дыхательной  системы.
Барак  как  раз 
напротив  проходной.
Я  помню…  каждый  день 
передо  мной
в  окне  медпункта 
медленной  волной
солдатские  колонны  проходили.
Конвой.  Собаки. 
Это  немцы  были.
Смотря  на  них, 
я  дрожь  сгонял,  натужась.
Враги.  Фашисты. 
Ощущал  я  ужас
и  ненависть  зараз. 
Мой  папка  бьется
на  фронте  с  ними, 
а  им  здесь  живется
на  нашем  хлебе! 
Мама  кулачки
сжимает,  а  на  щеках 
гуляют  желвачки.
Потом  мы  с  ней 
уже  спокойней  стали,
когда  в  медпункт  к  нам 
немцы  забегали.
Она  встречала  их, 
душою  каменея,
они  же  просто  млели 
перед  нею.
Восторг  пылал 
в  фашистских  их  глазах.
Она  лечила  их 
за  совесть,  не  за  страх.
Признаюсь,
я  не  очень  удивился,
когда  один  из  них 
в  нее  влюбился.
И  даже  сахар 
мне  всучить  пытался.
Но  только  он 
не  на  того  нарвался.
Не  мог  я  от  фашиста 
дар  принять.
Надеюсь,  вам  легко 
меня  понять.
Но  к  пленным 
мы  позднее  подобрели.
Увидеть  в  них 
людей  простых  сумели,
которым, 
как  и  с  мамой  нам,  война
была  ну  совершенно 
не  нужна.
Но  вот  вопрос: 
как  эти  немцы  ныне
войны  не  видят, 
что  на Украине?
И  против  нас 
на  санкции  пошли.
Поставить  США 
на  место  не  смогли.
А  не  смогли  ли? 
Нет,  не  захотели
отбросить  песенки, 
что  янки  им  напели.
Спасибо  говорят 
пусть  Ангелине.
Она  страну  свою 
Америке  сдала,
а  ведь  когда-то 
другом  нам  была
и  русский 
с  удовольствием  учила.
Но,  видно, 
что-то  недополучила,
когда  в  семье
священника  росла…
Ложится  первый 
на  мозаику  кусочек.
А  я,  мой  друг, 
передохну  часочек.
Ведь,  кажется, 
что  все  давно  прошло,
а  в  сердце  бьет 
по  первое  число…
Но  эту  встречу 
мне  забыть  едва ли:
нас  сам  директор 
встретил  на вокзале. 
Высокий.  Крупный.
В  форменной  шинели.
В  погонах. 
И  мы  с  мамой  онемели.
Своим  мы 
не  поверили  глазам.
Нас  генерал 
надумал  встретить сам!
- Я  ждал  вас,  Анна. 
Вы  не  удивляйтесь.
Где  ваши  вещи?
О,  вы не  смущайтесь.
Я  на  вокзале 
по  своим делам -
отправку  шпал 
попробовал  ускорить.
Пришлось  с  диспетчерами 
тут  поспорить.
Я  их  уговорил. 
Хочу  помочь  и  вам…
Он  прокатил  нас 
в  «виллисе»  по  Томску.
Весь  город 
был  в  сугробы  погружен.
Директор  оказался 
свой  ну  в доску.
Его  рассказами 
я  был  заворожен.
Он  нас  подвез 
к  бараку  заводскому,
медпункт  нам 
самолично  показал.
- Я  буду  заходить 
к  вам…  по-простому, -
он  маме  на  прощание  сказал.
-  Конечно,  заходите. 
Мы  со  Славкой
вас  будем 
с  удовольствием  встречать.
Но  я  уже  сейчас 
хочу  начать
знакомство  наше 
небольшой  заявкой…
И  мама, 
теребя  рукав  жакетки,   
потребовала, 
чтобы  в  кабинет
доставили  бы  шкаф 
и  две  кушетки.
И  генерал 
ей  не  ответил  «нет».
Я  был  ребенок. 
Многого  не  видел.
Но  что-то  ведь 
я  все  же  понимал.
Ведь  я  запомнил, 
как  он  нас  обидел,
наш  друг  директор, 
важный  генерал.
О  дружбе  мамы
с  этим  генералом
мне  тетя  Капа 
делала  намек.
Но  даже  лучше, 
что  мне  невдомек.
Я  против  сплетен. 
Их всегда  навалом.
Но  вот  не  сплетни  - 
все  реально  было.
Семья  директора 
нас  в  гости  пригласила.
Мы  там  должны  были 
отметить  Новый  год.
Я  знал,  там  елочка 
украшенная  ждет.
Снегурочка  и  Дед  Мороз 
там  будут.
Они  про  нас, 
конечно,  не  забудут.
Не  думал  я  о  том, 
как  мы  одеты,
во  что  обуты. 
Бедность  не  порок.
Но  получили 
с  мамой  мы  урок,
который  помнится  мне 
и  в  седые  лета.
Открыла  двери 
нам  дочурка  генерала.
Ее,  видать, 
столица  одевала.
- Входите,  раз  пришли! –
она  сказала.
И  взгляд  ее 
наполнен  был…  презреньем.
Навстречу  вышла 
и  супруга  генерала.
Ее  улыбка 
тоже  выдавала
отнюдь  не  радость 
нашему  явленью.
Она  была 
роскошно  разодета.
Вся  в  драгоценностях. 
И  в  декольте. 
И  в  раздражении, 
что  гости  мол  не  те.
Что  мать,  что  сын - 
на  них  смотреть-то  стыдно.
И  с  мамой  нам 
все  это  было  видно.
Сам  генерал 
в  смущении  был  сильном.
Гостей  нежданных 
он  не  поддержал.
К  нам  подойдя, 
с  улыбкою  умильной,
что  нужно  уезжать  им, 
он  сказал.
Да  срочно! 
И,  к  большому сожаленью,
пусть  будет 
наш  визит  недоразуменьем.
И  вроде  бы 
в  награду  за  обиду,
за  то,  что  с  нами 
так  вот  поступил,
два  апельсина  нам,
 скорей  для  виду,
скрывая  замешательство, 
вручил.
Не  знаю  почему, 
но  мне  сегодня
припомнился 
тот  вечер  новогодний.
Я  вспоминать  такое   
не  люблю.
А  апельсины… 
с  детства  не  терплю.
Но  все-таки 
кусочек  этот  вставлю
в  мозаику,   
которую  составлю
из   светлого 
и  темного  стекла.
Ведь  жизнь-то 
черно-белая  была
для  взрослых. 
Да  и  для  детей.
Я  жил  в  медпункте  тихо, 
без  затей.
Медпункт  наш  состоял 
из  пары  комнат.
В  одной  был  мамин  кабинет, 
я  помню.
В  другой  кровать 
железная   стояла, 
покрытая 
солдатским  одеялом.
Я  под   нее 
частенько  забирался,
когда  от  немцев  маминых 
спасался.
За  ней  в  углу
 картонная  коробка.
На  ней  американский   
был  флажок.
В  коробке  той 
прописан  был  дружок
мой,  мишка 
плюшевый  Еропка. 
И  были  в  комнате 
еще  большие  счеты,
а  в  них   колесиков 
несчетное  число.
На  этих   счетах 
мама  делала  отчеты,
ну  сколько  йода  там 
или  бинтов ушло
на  перевязки 
этим  бедным  фрицам.
Я  знал – ей  ошибаться 
не  годится.
Умение  считать 
на  счетах  помогло.
Ну  их  потом 
я  тырил  без  зазренья.
Коробка  тут  же 
ставилась  на  них.
И  не  нашлось  бы 
средств  передвиженья
для  нас  с  Еропкой 
лучше…  для  двоих!
Мы  по  медпункту 
вихрем  разъезжали,
врывались  даже 
в  мамин  кабинет.
Но  это  лишь  когда 
мы  твердо  знали,
что  пациентов  там 
немецких  нет.
Но  в  комнате  жилой 
была  такая  точка,
мимо  которой   
мы  старались  прошмыгнуть
почти  ползком. 
И  даже  головы  нагнуть
могли, 
как  под  ударом  молоточка.
Чего  боялись 
мы  с  Еропкой  -  не секрет.
Над  нами  на  стене
 висел  портрет.
Его  в  медпункт 
принес  нам  сам  директор, 
своей  судьбы 
определивший  вектор.
Я  был  портретом 
просто  поражен.
Не  знал  я, 
кто  на  нем  изображен.
Мужчина.  Пухлый. 
С  лысой  головою.
Глаза  жестокие 
за  стеклами  пенсне.
Я  чувствовал, 
 что  он  следит  за  мною
и  днем,  и  ночью, 
когда  я  во  сне.
Мне  этот  тип 
казался  страшным  очень.
А  почему  - 
я  объяснить  не  мог.
Но  мы  с  Еропкою 
не  чувствовали  ног,
когда  под  ним   стояли, 
между прочим.
Заметил  я, 
что  пленные  солдаты,
окидывая  взглядом 
тот  портрет,
кривили  губы 
как-то  виновато
и  говорили 
по-немецки: Schlecht!
И  только  школьником, 
уже  в 4-м  классе,
немецким 
увлекаясь  языком,    
я  понял: 
это  слово  о  плохом,
ужасном. 
В  общем,  о  несчастье.
Ну  а  тогда  в  медпункте 
мы  с  Еропкой
смотрели  на  портрет 
довольно  робко.
Хотя  мне  шел 
всего  лишь  пятый  год,
я  чуял  зло - 
к  чему  мне  перевод!
И  у  соседей…   
у  всего  барака
проблемы 
как-то  сразу  начались.
Какой-то  страх 
всех  обуял,  однако.
Да,  страх  возник, 
откуда ни  возьмись.
Был  у  меня 
знакомый  дядя  Миша -
по  коридору  слева 
наш  сосед.
Его  гармошку 
мы  могли  услышать
и  днем,  и  утром, 
в  полночь  и  чуть  свет.
Он  на  заводе 
на  пропитку  шпалы
из  цеха 
с  пилорамы  доставлял.
Всегда  такой  веселый, 
разудалый,
в  бараке  нашем   
всех  в  себя  влюблял.
Когда  со  смены 
он  домой  являлся,
я  тут  как  тут 
уже  был  рядом  с  ним.
И  он  со  мной 
охотно  занимался,
ну  словно  с  братом 
собственным  своим.
Ему  обязан  я 
любовью  к  песням
и  тягой  к  музыке 
народной  и  простой.
Я  и  сегодня, 
когда  грусть  хоть тресни,
когда  за  радостью 
приходит  вдруг  застой,
беру  баян… 
И  молодость  воскреснет,
и  жизнь 
уже  не  кажется  пустой!
Но  вдруг  однажды, 
тишину  услышав,
объявшую 
огромный  наш  барак,
я  бросился 
к  квартире  дяди  Миши -
и  там  увидел 
пустоту  и  мрак. 
-  Ты  разве  ночью 
ничего  не  слышал?
За  ним  пришел 
тюремный  «воронок».
За  что  забрали? 
Говори  потише…
Ему  теперь  поможет 
только Бог.
За  песни  Мишу 
заарестовали.
Гармошкой  не  давал 
кому-то  спать.
Ты  с  ним  дружил, 
но  не  давай  печали
к  душе  своей 
надолго  прикипать.
Все  впереди, 
ты  вырастешь,  сынишка,
найдешь  свои  хорошие  пути,
и  память 
о  веселом  парне  Мишке
поможет  тебе 
с  честью  их  пройти…
Объятый  горем, 
утешенья  мамы
принять  душой, 
конечно,  был  я  рад.
Но  в  голове 
кололо  мозг  упрямо:
«Это  портрет 
в  несчастье  виноват!»
Денечки  за  деньками 
пробегали,
и  наш  барак 
порядком  опустел.
Исчез  супруг 
кассирши  тети  Вали.
На  дяди  Колиной  двери 
замок  висел.
Пропал  бухгалтер 
толстый  дядя  Федя.
Он  свои  счеты 
маме  подарил.
Какой-то  мор 
свалился  на  соседей.
В  бараке  страх 
густеющий  царил.
Я  часто  слышал
взрослых  разговоры,
в  них  шепотом: 
«Кругом  одни  враги».
«Да,  взяли. 
Видно,  правы  прокуроры».
Барак  не  спал, 
когда  по  коридору
стучали  громко 
чьи-то  сапоги…
Я  снова  камешки 
для  фрески  разбираю.
Местечко  есть. 
Я  нужный  выбираю.
Мозаика  моя 
почти  сложилась.
Но  память  вдруг 
как  облаком  накрылась.
Проснулся,  видно,   
мой  гипнотизер, 
опять  в  ней 
кое-что  затер.
Я  подожду. 
Мне  некуда  спешить.
А  жизнь  идет. 
Ее  не заглушить.
Я  в  соц.  каналах
в  гости  заявляюсь.
Беседую.  Шучу. 
Веселым  быть  стараюсь.
Приятно  видеть  мне  - 
среди  друзей
есть  души,   
очень  сходные  с  моей.
И  я  для  них 
пишу  свои  рассказы
в  стихах.  И  не  жалел 
еще  ни  разу.
Но  вот  и  снова 
чудо  совершилось -
калиточка  мне 
в  памяти  открылась.
Но  я  ее 
немножко  придержу -
чуток  по  взрослой  жизни 
погуляю.
Я  Томск  родной 
частенько  посещаю.
Свою  сестру  родную 
навещаю.
И  радость  сердцу 
в  этом  нахожу.
Ее супруг Сергей –
мой  близкий  друг.
С  ним  в  шахматы… 
советую…  не  спорьте.
Ему  нет  равных 
в  авто-  мотоспорте.
В  машинах  съел  он 
всех  собак  вокруг.
У  Оли  трое 
взрослых  сыновей.
Меня  с  ребятами 
водою  не  разлей.
С  Сергеем  мы 
по  Томску  вяжем  круг
на  БМВ,
любимом  лимузине
(рысак  и  броневик 
в  одной  корзине).
Сергей  на пенсии, 
монтажник  высший  класс,
в  цеху  родном 
он  возникал  не  раз.
Завод  закрытый –
не  возьмешь  кого  попало.
Ну  у  Сереги  хватка 
не  пропала.
На  производстве 
не  в  бирюльки  он  играл:
для  средств  доставки 
он  заряды  собирал.
-  Ты  знаешь, 
пусть  нескромно  прозвучит,
но  мы  собрали  для  страны 
надежный  щит.
И  этим,  если  честно, 
я  горжусь.
Теперь  вот 
со  своей  машиною  вожусь.
В  «Мичуринском» 
фазенду  обживаю.
На  ней  домишко 
помаленьку  воздвигаю.
Без  дел,  короче, 
я  и  здесь  не  нахожусь.
Сегодня  вот 
тебя  я  покатаю -
таксиста 
из  себя  изображаю…
Нет,  нет,  Сергей! 
Ты  гид,  а  не  таксист.
А  так  как  я  в  гостях, 
то  значит  я  турист.
Вот  Черемошники. 
Район  Шпалопропитки.
А  вот  и  сам 
знакомый  мне  завод,
разваленный, 
разобранный  до  нитки.
А  вот  барак,
 в  котором  был  медпункт.
Прошу  Сергея: 
«Тормозни-ка  тут!»
К  входной  двери 
забитой  подхожу.
Дай  хоть  с  крыльца 
окрестность  огляжу.
Вокруг  большие 
новые  дома.
В  глаза  мне  смотрит 
моя  жизнь  сама.
Я  вроде  в  прошлом, 
но  и  в  настоящем.
Себя  я  вижу 
там  и  здесь  стоящим.
А  ну,  калитка  в  прошлое, 
откройся!
Себе  же  сам  шепчу:
«Не  беспокойся!»
Для  фрески  камешек 
я  в  кулаке  держу.
И  с  ним  я  снова
в  детство  захожу...
С  весной  на  Томск 
нахлынуло  тепло.
И  тут  же  все 
куда-то  потекло.
С  карнизов,  с  крыш 
затюкала  капель.
Такой  уж  ранний 
выдался  апрель!
В  медпункт 
пришел  сегодня  почтальон.
-  Вам  два  письма! –
заулыбался  он. –
Да  с  фронта  же. 
По  штампам  же  видать.
Ну  все.  Ушел. 
Не  буду вам  мешать…
А  мы  с  мамулей 
кинулись  читать.
Нам  не  терпелось 
поскорей  узнать,
как  там  ее  супруг, 
а  мой  отец.
Не  ранен  ли, 
здоров  ли,  наконец.
Да,  мы  узнали…   
он  уже  здоров.
Благодарит 
военных  докторов.
Молчал…  он  не  хотел
 нас  волновать.
Про  госпиталь 
уж  начал  забывать.
Фашистов  гонит  он 
вдоль  Балтики  сейчас.
Курортная…  лес…
дюны…  полоса.
Зовется  она 
Куршская  коса.
«Пишу  вам. 
Бой  закончился  как раз.
Я  вас  люблю. 
Родные  вы  мои.
Наверно, 
скоро  стихнут  здесь  бои.
Ну  а  пока 
скучать  мы  не  скучаем.
Мы  немцев 
прямо  в  море  загоняем.
Вы  ждите,  верьте, 
я  вернусь,  вернусь!».
В  глазах  у  мамы 
радость  или  грусть?
Ну  пусть  поплачет, 
пусть  поплачет,  пусть.
Я  же  мужчина  - 
потому  не  плакал.
А  за  окном  апрель 
слезами  капал. 
-  Фриц  на  прием  идет. 
Не  буду  вам  мешать.
Пойду-ка  свежим  воздухом 
дышать.
Но  я  как  только 
вышел  на  крыльцо,
как  только  ветру 
выставил  лицо,
глазам  своим 
поверить  я  не  мог –
увидел  я 
тюремный  «воронок».
За  кем  же  он 
явился  в  этот  раз?
Как  странно,  днем, 
а  не  в  полночный час.
С  машиной  рядом  в  луже 
два  солдата
смывают  грязь  с  сапог, 
отставив  автоматы.
С  крыльца  сошел  я, 
ну  на  всякий  случай.
Хотелось 
рассмотреть  мне  их  получше.
Вот  заскрипела, 
открываясь,  дверь.
Я  наконец 
увижу  все  теперь!
Вот  двое  в  штатском 
вышли  на  крыльцо.
Внимательно  вгляделись 
мне  в  лицо.
За  ними  вышел 
друг  наш  генерал.
Он  был  раздет. 
Весь  в  синяках.  Хромал.
Его  конвойный 
сзади  подтолкнул,
и  он  неловко 
прямо  в  снег  шагнул.
Ботинки  без  шнурков. 
Передо  мной
остановился. 
Руки  за  спиной.
Я  слышу… 
его  шепот  шелестит:
- Прости  меня. 
И  мама  пусть  простит.
Ты  передай  ей  это, 
передай…
Наверное,  не  свидимся. 
Прощай…
И  он,  хромая, 
зашагал  по  лужам.
Кому-то  нужен, 
а  вот  мне  не  нужен. 
Мне  от  него  бы 
получить  ответ,
зачем  в  медпункт 
принес  он  тот  портрет.
Ведь  этим  многих 
он  приговорил.
Ведь  злу  в  барак 
он  двери  отворил. 
А  вот  судьбу-то 
не  перехитрил…
Вдруг  слышу  голос   
гида  моего:
-  Здесь  не  увидим 
больше  ничего.
Скажи  медпункту 
своему:  «Всего!»
Поедем  дальше, 
ты  же  будешь  рад
взглянуть  на  дом, 
в  котором  был  детсад,
куда,  когда  войне 
пришел  конец,
к  тебе  ворвался 
радостный  отец.
А  хочешь… 
мы  и  в  Асино  махнем.
Туда  мы  доберемся 
еще  днем.
Ведь  там  ты 
«тигра»  брал  на  абордаж.
Я  помню  твой 
из  детства  репортаж…
И  вновь  сижу  я 
в  БМВ  Сергея.
Хочу  покинуть 
прошлое  скорее.
Местечко 
на  мозаике  осталось.
Вот  камушек  в  руке… 
такая  малость!
Но  без  него 
в  мозаике  изъян.
Представь 
с  запавшей  кнопочкой  баян.
Без  этой  самой  кнопки, 
понимаешь,
ты  на  баяне 
черта  с  два  сыграешь.
Но  прошлое 
меня  не  отпускает,
опять  в  медпункт 
вернуться  заставляет.
Портрет  висит  там… 
как  проклятье.
Своей  рукой 
решил  его  сорвать  я.
Меня  уже  ничто 
не  остановит.
Пускай  любой  сюрприз 
он  мне  готовит.
Под  взглядом 
злобных  глаз  не  задрожу,
от  страха  наш  барак 
освобожу.
Ну,  в  общем, 
как  мне  ни  было  тревожно,
вся  операция 
закончилась  как  должно.
Но  кое  с  чем 
пришлось  смириться  мне -
пятно  бельмом 
белело  на  стене.
Но  в  комнате 
без  страшного  портрета,
мне  показалось, 
стало  больше  света.
И  стало  ясно, 
что  теперь  другую
картину  лучше  рассмотреть 
смогу  я.
Она  висела 
от  портрета  справа.
Ну  и  теперь
на  все  имела  право!
И  что  увидел  я  на  ней, 
мальчонка?
Церквушка… 
деревянная  избенка.
Прозрачный  купол 
и  прозрачный  крест.
И  ветер, 
все  заполнивший  окрест.
Рябь  от  него 
на  серой  водной  глади.
И  горизонт, 
закрытый  облаками,
размытый 
полосатыми  дождями.
Простор  затих… 
притих  перед  грозой.
Ветвей  деревьев 
наклонённых  пряди.      
Погост.  Могилки. 
Травка  бирюзой…
Прости  меня,  читатель, 
Бога  ради,
но  это  все 
меня  ошеломило
и  душу  чем-то  острым 
зацепило.
А  сердце 
как-то  горестно  заныло.
Все  объяснить  словами 
трудно  было.
И  струнка  тонкая 
звенеть  тихонько стала.
И  до  сих  пор 
звенит  ведь…  не  устала.
Теперь  я  понимаю, 
что  искусство
во  мне,  ребенке, 
зародило  чувство
любви  к  России, 
к  тишине  ее  природы.
Любви  сердечной 
к  русскому  народу.
Я  с  детства  понял, 
что  ради  свободы
мы,  русские, 
себя  не  бережем
и  независимость 
упорно  стережем.
Мы  не  даем 
играть  с  собой  уродам,
играющим 
заточенным  ножом.
Я  видел… 
в  русских  все  переплелось:
любовь  и  ненависть,
стеснительность  и  нежность,
презрение  к  корысти,   
безмятежность,
упертость  в  справедливости… 
И злость,
в  бою  переходящая 
в  безбрежность,
коль  выхода  другого 
не  нашлось.
И  это  все 
вливалось  постоянно
в  меня,  мальца, 
в  военный  трудный  год.
Но  тот  покой 
с  картины  Левитана 
мне  и  сегодня   
силы   придает.
Горжусь  я  тем, 
что  русские  мотивы
в  душе  еврея 
гордо  расцвели.
Он  рисовал  Россию 
так  красиво,
как  русские 
немногие  могли.
И  пусть  меня  клянут 
антисемиты,
кричащие 
о  чистоте  кровей.
Я  заявляю 
честно  и  открыто:
мне  кровно  близок 
этот  вот  еврей!
Он  мне  помог 
увидеть  бесконечность.
А  также, 
что  такое  вечность
понять,  приняв 
бессмертною  душой.
Рисуя  жизнь 
божественной  рукой,
он  сам  проник 
в  ее  святую  суть.
А  тот  портрет… 
наплюй  и  позабудь!
Ну  вот  и  вложен 
камешек  последний
в  мозаику, 
раскопанную  мной.
Мой  труд  и  интересен  был 
и  сложен.
Наверно,  это мой 
последний  бой.
Я  восхищен 
«Последним  днем  Помпеи»
Брюллова. 
Это  тоже  был  титан.
И  все  же  мне 
мгновение  милее…
перед  грозой… 
что  видел  Левитан.
Последнее  мгновенье. 
День  последний.
Последний  бой. 
А  дальше  мир  иной.
Так  колокол, 
сзывающий  к  обедне,
вдруг  замолкает 
перед  тишиной.
Итак,  мой  друг, 
прощаемся  с  тобой.
Наполненный 
усердьем  каждодневным,
прости  меня… 
и  будешь  сам  прощен.
Кто  ранен  злом, 
тот  будет  отомщен.
Добро  останется 
и  чистым,  и  душевным.
……………………………..
Я  говорю: 
мы  все  из  детства,  люди!
Мне  это  повторять 
не  надоест.
Давайте  же  нести 
по  жизни  будем
добро  души, 
как  наш  счастливый  крест!